Posts

Showing posts from May, 2020

अजवाइन की खेती

Image
अजवाइन की खेती भारत व विश्व मे प्रमुख रूप से मसालो के लिए की जाती है | अजवाइन धनिया कूल का पौधा है इसका वानस्पतिक नाम टेकिस्पर्मम एम्मी है तथा अंग्रेजी में यह बिशप्स वीड के नाम से जाना जाता है अजवाइन  को प्रमुख रूप से ओषधिया बनाने मे काम लिया जाता है | अजवाइन  का भारतीय रसोई मे कई प्रकार से उपयोग मे लिया जाता है | अजवाइन में खनिज पदार्थ तत्वों का अच्छा स्रोत है। इसमें प्रोटीन, वसा, रेशा, कार्बोहाइड्रेट, फास्फोरस, कैल्शियम, लोहा आदि होता है।अजवाइन पेट के वायुविकार, पेचिस, बदहजमी, हैजा, कफ, ऐंठन जैसी समस्याओं और सर्दी जुखाम आदि के लिए काम में लिया जाता हैं, तथा गले में खराबी, आवाज फटने, कान दर्द, चर्म रोग, दमा आदि रोगों की औषधी बनाने के काम में लिया जाता हैं। अजवाइन के सत को दंतमंजन एवं टूथपेस्ट, शल्य क्रिया में प्रतिरक्षक के तोर पर प्रयोग किया जाता हैं। इसके अलावा यह बिस्कुट फल, सब्जी संरक्षण में काम आता हैं।   औषधीय खेती विकास संस्थान    मे आज हम इस चम्मतकारी पौधे के बारे मे जानेंगे की कैसे आप अजवाइन की खेती करके अच्छा मुनाफा कमा सकते है. इस पोस्ट के प्रमुख बिन्दु जिनके

पपीते की खेती

Image
पपीता की खेती की जानकारी- -पपीता कोअमृत घट भी कहा जाता है।  -पपीता में  विटामिन ए पर्याप्त मात्रा में पाया जाता है । -ये बहुत कम समय में फल देता है । -पपीता का वजन 300 ग्राम से लेकर 1 kg तक होता है । -पपीता में कई पाचक एन्जाइम होते है । -पपीता के पेड़ की आयु 3 साल तक होती है । -1 हेक्टेयर में पपीता का उत्पादन 30 से 40 टन तक होता है । शुष्क और गर्म जलवायु में इसके फल अधिक मीठे होते है । पपीता के उत्पादन के लिए 26 से 30 डिग्री के बीच होना चाहिए और ध्यान रखना चाहिए कि तापमान 10 डिग्री के नीचे न जाय। पपीता के लिए दोमट या बलुई दोमट मिट्टी की अवसायकता होती है । मिट्टी का pH मान 6.5 से 7.5 के बीच होना चाहिए। पपीता के खेत में पानी का निकास की व्यवस्था जरूर होनी चाहिए । खेत को जोत कर अच्छी तरह से समतल कर लेना चाहिए। खेत को हल्का ढाल युक्त बना लेना उपयुक्त होगा । गड्ढे की माप 1.25× 1.25 मीटर होनी चाहिए। बुवाई से पहले इन गड्ढे  में 20 kg गोबर की खाद ,500 ग्राम सुपर सल्फेट , 250 ग्राम म्यूरेट ऑफ पोटाश मिट्टी

कस्तूरी हल्दी व अन्य हल्दी की प्रजातियां

Image
हल्दी जिंजिवरेंसी कुल का पौधा हैं। इसका का वानस्पतिक नाम कुर्कमा लांगा हैं। इसकी उत्पत्ति दक्षिण पूर्व एशिया में हुई हैं। हल्दी का उपयोग प्राचीनकाल से विभिन्न रूपों में किया जाता आ रहा हैं, क्योंकि इसमें रंग महक एवं औषधीय गुण पाये जाते हैं। हल्दी में जैव संरक्षण एवं जैव विनाश दोनों ही गुण विद्यमान हैं, क्योंकि यह तंतुओं की सुरक्षा एवं जीवाणु (वैक्टीरिया) को मारता है। इसका उपयोग औषधीय रूप में होने के साथ-साथ समाज में सभी शुभकार्यों में इसका उपयोग बहुत प्राचीनकाल से हो रहा है। वर्तमान समय में प्रसाधन के सर्वोत्तम उत्पाद हल्दी से ही बनाये जा रहे हैं। हल्दी में कुर्कमिन पाया जाता हैं तथा इससे एलियोरोजिन भी निकाला जाता हैं। हल्दी में स्टार्च की मात्रा सर्वाधिक होती हैं। इसके अतिरिक्त इसमें 13.1 प्रतिशत पानी, 6.3 प्रतिशत प्रोटीन, 5.1 प्रतिशत वसा, 69.4 प्रतिशत कार्बोहाइड्रेट, 2.6 प्रतिशत रेशा एवं 3.5 प्रतिशत खनिज लवण पोषक तत्व पाये जाते हैं। इसमें वोनाटाइन ऑरेंज लाल तेल 1.3 से 5.5 प्रतिशत पाया जाता हैं। भारत विश्व में सबसे बड़ा हल्दी उत्पादक देश है। भारत में हल्दी क

चिया की खेती

Image
CHIA CROP                चिया यह एक प्रकार का तुलसी जैसा पौधा होता है इसमे बहुत अधिक मात्रा मे प्रोटीन केल्शियम आयरन मैग्नेशियम तथा ओमेगा -3 फेटी एसीड होता है | जिसके कारण इसका उपयोग दवाईयाँ बनाने में तथा शारीरिक सुंदरता बडाने में किया जाता है | यह वजन कम करने तथा ह्र्दय रोग को दूर करने में भी सहायक होता है इसमे उपस्थित ओमेगा -3 घुटनो के दर्द में भी सहायक होता है। इस पौधे की ऊंचाई लगभग 3-4 फिट तक होती है।      ।            उत्पादन -:  इसका उत्पादन लगभग 4 -5 क्विंटल प्रति एकड़ होता है            लगाने क समय तथा तरीका -:  इसे मुख्यरुप से अक्टूबर महीने में लगाया जाता है | इसे लगाने के लिये खेत को रोटावेटर से तैयार कर लेते है फिर मेड़ बनकार पारियों पर हल्का चीरा लगा देते है । फिर 2 kg प्रति एकड़ के  हिसाब से चिया बीज लेकर उसमे 10 किलो बालू रेत मिलाकर  मेड़ पर लगाए गए चीरें में बीज हाथ से डाल देते है ।          बीज डालते समय यह कोशिश करते है कि पौधे से पौधों की  दूरी लगभग 1- 1 फिट रहे । लगभग 7-8 दिन इसमे पौधा बाहर आ जाता है और इसके 10-15 दिन बा

कोलियस फोर्सकोली{पाषाणभेद}

Image
परिचय                 कोलियस फोर्सकोली जिसे पाषाणभेद अथवा पत्थरचूर भी कहा जाता है, उस औषधीय पौधों में से है, वैज्ञानिक आधारों पर जिनकी औषधीय उपयोगिता हाल ही में स्थापित हुई है। भारतवर्ष के समस्त उष्ण कटिबन्धीय एवं उप-उष्ण कटिबन्धीय क्षेत्रों के साथ-साथ पाकिस्तान, श्रीलंका, पूर्वी अफ्रीका, ब्राजील, मिश्र, ईथोपिया तथा अरब देशों में पाए जाने वाले इस औषधीय पौधे को भविष्य के एक महत्वपूर्ण औषधीय पौधे के रूप में देखा जा रहा है। वर्तमान में भारतवर्ष के विभिन्न भागों जैसे तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक तथा राजस्थान में इसकी विधिवत खेती भी प्रारंभ हो चुकी है जो काफी सफल रही है। कोलियस फोर्सखोली के पौधे का विवरण    कोलियस का पौधा लगभग दो फीट ऊँचा एक बहुवर्षीय पौधा होता है। इसके नीचे गाजर के जैसी (अपेक्षाकृत छोटी) जड़े विकसित  होती हैं तथा जड़ों से अलग-अलग प्रकार की गंध होती है तथा जड़ों में से आने वाली गंध बहुधा अदरक की गंध से मिलती जुलती होती है। इसका काड प्रायः गोल तथा चिकना होता है तथा इसकी नोड्स पर हल्के बाल जैसे दिखाई देते है। इसी प्रजाति का (इससे मिलता